So i am back,can not resist to stay here,a miraculous world of blogging netizens!! Looking forward to meet dear fellows:
" तर्क वितर्क
थक कर हो गए मौन.
हे मन अब तू ही बता
क्या हुआ जाता है मुझे,
क्यों खुशियों से विमुख?
भ्रमित सी इच्छायें
कहाँ भटकती हैं ?
एक दीर्घ नि:श्वास
"सी ब्रीज़" सा
उमसता हुआ,मुझे
सांत्वना दे पाने में असमर्थ
मेरे आस पास के वातावरण से
जूझने लगता है;
प्रश्नों का ड्रैगन
आग उगलता हुआ
मुझे झुलसाने को तत्पर,और,
मेरी सीली हुई आँखों में
धुंधलाती जा रहीदुनिया,
ऐसे में ऐ मेरे मन
अब
तू भी क्यों मौन? "
" तर्क वितर्क
थक कर हो गए मौन.
हे मन अब तू ही बता
क्या हुआ जाता है मुझे,
क्यों खुशियों से विमुख?
भ्रमित सी इच्छायें
कहाँ भटकती हैं ?
क्या रंग है उस
नदी के जल का
मेरे अंतर में जो निरंतर
नाद करती हुई बह रही है,
और,हर पल
मेरे अस्तित्व को निरंतर
घिस घस कर
रेत में परिवर्तित करती जाती है !
उफ़ !एक दीर्घ नि:श्वास
"सी ब्रीज़" सा
उमसता हुआ,मुझे
सांत्वना दे पाने में असमर्थ
मेरे आस पास के वातावरण से
जूझने लगता है;
प्रश्नों का ड्रैगन
आग उगलता हुआ
मुझे झुलसाने को तत्पर,और,
मेरी सीली हुई आँखों में
धुंधलाती जा रहीदुनिया,
ऐसे में ऐ मेरे मन
अब
तू भी क्यों मौन? "
bahut sundar rachna Vijai.
ReplyDeleteDhanyavaad Shweta.shaayad aise protsahan ke liye hi main vaapas aaya.
Deleteमन के अंतर्द्वंद को भली-भाँती समझती कविता. सुंदर रचना.
ReplyDeleteराकेश जी मैं अनुगृहीतहुआ।आप से भी मैं प्रेरित रहा हूँ।
DeleteIt took some time to read it as it's in Hindi...but I must say it's worth the time... :-) wonderful. :-)
ReplyDeleteHi Maniparna,i am grateful you found it worthwhile.Thanks.A poetry is like a natural water fall.I will update it with English translation which may be a bit helpful.
Deleteऔर,हर पल
ReplyDeleteमेरे अस्तित्व को निरंतर
घिस घस कर
रेत में परिवर्तित करती जाती है !
Bhai waah! Bahut khoob!!
Amit Ji ,jarra nawaji ka shukriya.
DeleteBeautiful lines.... I loved the opening lines..." tark -vitark thak gaye ab ..."
ReplyDeleteThanks Kokila for encouragement.Many times i tried to use logic n careful thoughts to describe feelings in a poetry but failed miserably ! Do not know of others !
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